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शिव ताण्डव स्तोत्र (संस्कृत:शिवताण्डवस्तोत्रम्) महान विद्वान एवं परम शिवभक्त लंकाधिपति रावण द्वारा विरचित भगवान शिव का स्तोत्र है।

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जटाटवी-गलज्जल-प्रवाह-पावित-स्थले गलेऽव-लम्ब्य-लम्बितां-भुजंग-तुंग-मालिकाम्  डमड्डमड्डमड्डम-न्निनादव-ड्डमर्वयं चकार-चण्ड्ताण्डवं-तनोतु-नः शिवः शिवम् ॥१॥ जिन शिव जी की सघन, वनरूपी जटा से प्रवाहित हो गंगा जी की धारायं उनके कंठ को प्रक्षालित होती हैं, जिनके गले में बडे एवं लम्बे सर्पों की मालाएं लटक रहीं हैं, तथा जो शिव जी डम-डम डमरू बजा कर प्रचण्ड ताण्डव करते हैं, वे शिवजी हमारा कल्याण करें। जटा-कटा-हसं-भ्रमभ्रमन्नि-लिम्प-निर्झरी- -विलोलवी-चिवल्लरी-विराजमान-मूर्धनि . धगद्धगद्धग-ज्ज्वल-ल्ललाट-पट्ट-पावके किशोरचन्द्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम ॥२॥ जिन शिव जी के जटाओं में अतिवेग से विलास पुर्वक भ्रमण कर रही देवी गंगा की लहरे उनके शिश पर लहरा रहीं हैं, जिनके मस्तक पर अग्नि की प्रचण्ड ज्वालायें धधक-धधक करके प्रज्वलित हो रहीं हैं, उन बाल चंद्रमा से विभूषित शिवजी में मेरा अनुराग प्रतिक्षण बढता रहे। धरा-धरेन्द्र-नंदिनीविलास-बन्धु-बन्धुर स्फुर-द्दिगन्त-सन्ततिप्रमोद-मान-मानसे . कृपा-कटाक्ष-धोरणी-निरुद्ध-दुर्धरापदि क्वचि-द्दिगम्बरे-मनो विनोदमेतु वस्तुनि ॥३॥ जो पर्वतराज

ठन गई! मौत से ठन गई!

अटल बिहारी वाजपेयी ठन गई! मौत से ठन गई! जूझने का मेरा इरादा न था, मोड़ पर मिलेंगे इसका वादा न था, रास्ता रोक कर वह खड़ी हो गई, यों लगा ज़िन्दगी से बड़ी हो गई। मौत की उमर क्या है? दो पल भी नहीं, ज़िन्दगी सिलसिला, आज कल की नहीं। मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूँ, लौटकर आऊँगा, कूच से क्यों डरूँ? तू दबे पाँव, चोरी-छिपे से न आ, सामने वार कर फिर मुझे आज़मा। मौत से बेख़बर, ज़िन्दगी का सफ़र, शाम हर सुरमई, रात बंसी का स्वर। बात ऐसी नहीं कि कोई ग़म ही नहीं, दर्द अपने-पराए कुछ कम भी नहीं। प्यार इतना परायों से मुझको मिला, न अपनों से बाक़ी हैं कोई गिला। हर चुनौती से दो हाथ मैंने किये, आंधियों में जलाए हैं बुझते दिए। आज झकझोरता तेज़ तूफ़ान है, नाव भँवरों की बाँहों में मेहमान है। पार पाने का क़ायम मगर हौसला, देख तेवर तूफ़ाँ का, तेवरी तन गई। मौत से ठन गई।
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'पूर्व प्रधानमंत्री अजातशत्रु भारत रत्न पंडित अटल बिहारी वाजपेयी जी को शत शत नमन' 'नवनीत' के दिसंबर, 1963 के अंक में 'राजनीति की रपटीली राह में' शीर्षक से। प्रकाशित अपनी रचना में अपने मन के अंतर्द्वंद्व कि वे इस प्रकार प्रकट करते हैं। " मेरी सबसे बड़ी भूल है राजनीति में आना। इच्छा थी कि कुछ पठन-पाठन करूंगा। अध्ययन और अध्यवसाय की पारिवारिक परंपरा को आगे बढ़ाएंगे। अतीत से कुछ लूंगा और भविष्य को कुछ दे जाऊंगा, किंतु राजनीति की रपटीली राह में कमाना तो दूर रहा, गांठ की पूंजी भी गँवा बैठा। मन की शांति मर गई, संतोष समाप्त हो गया। एक विचित्र सा खोखलापन मन में भर गया। ममता और करुणा के मानवीय मूल्य मुंह चुराने लगे हैं। क्षणिक स्थाई बनता जा रहा है जड़ता को स्थायित्व मान कर चलने की प्रवृत्ति पनप रही है।   आज की राजनीति विवेक नहीं वाक्चातुर्य चाहती है। संयम नहीं, असहिष्णुता को प्रोत्साहन देती है। श्रेय नहीं, प्रेम के पीछे पागल है। मतभेद का समादर करना तो दूर, उसे सहन करने की प्रवृत्ति भी विलुप्त होती जा रही है। आदर्शवाद का स्थान अवसरवाद ले रहा है। बाएं और

समर शेष है - रामधारी सिंह दिनकर

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ढीली करो धनुष की डोरी, तरकस का कस खोलो , किसने कहा, युद्ध की वेला चली गयी, शांति से बोलो? किसने कहा, और मत वेधो ह्रदय वह्रि के शर से, भरो भुवन का अंग कुंकुम से, कुसुम से, केसर से? कुंकुम? लेपूं किसे? सुनाऊँ किसको कोमल गान? तड़प रहा आँखों के आगे भूखा हिन्दुस्तान । फूलों के रंगीन लहर पर ओ उतरनेवाले ! ओ रेशमी नगर के वासी! ओ छवि के मतवाले! सकल देश में हालाहल है, दिल्ली में हाला है, दिल्ली में रौशनी, शेष भारत में अंधियाला है । मखमल के पर्दों के बाहर, फूलों के उस पार, ज्यों का त्यों है खड़ा, आज भी मरघट-सा संसार । वह संसार जहाँ तक पहुँची अब तक नहीं किरण है  जहाँ क्षितिज है शून्य, अभी तक अंबर तिमिर वरण है  देख जहाँ का दृश्य आज भी अन्त:स्थल हिलता है  माँ को लज्ज वसन और शिशु को न क्षीर मिलता है  पूज रहा है जहाँ चकित हो जन-जन देख अकाज  सात वर्ष हो गये राह में, अटका कहाँ स्वराज?  अटका कहाँ स्वराज? बोल दिल्ली! तू क्या कहती है?  तू रानी बन गयी वेदना जनता क्यों सहती है?  सबके भाग्य दबा रखे हैं किसने अपने कर में?  उतरी थी जो विभा, हुई बंदिनी बता किस घर में  समर शेष है, यह प्रकाश बंदीगृह से छूटेगा  और

सरफरोशी की तमन्ना

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जन्म जयंती पर शत-शत नमन रामप्रसाद बिस्मिल जी【  (११ जून १८९७-१९ दिसम्बर १९२७)  भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन  की क्रान्तिकारी धारा के एक प्रमुख  सेनानी  थे, जिन्हें ३० वर्ष की आयु में  ब्रिटिश सरकार  ने  फाँसी  दे दी। वे मैनपुरी षड्यन्त्र व काकोरी-काण्ड जैसी कई घटनाओं में शामिल थे तथा हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन के सदस्य भी थे।】 सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है ज़ोर कितना बाज़ु-ए-कातिल में है? वक्त आने दे बता देंगे तुझे ऐ आस्माँ!हम अभी से क्या बतायें क्या हमारे दिल में है? एक से करता नहीं क्यों दूसरा कुछ बातचीत,देखता हूँ मैं जिसे वो चुप तेरी महफ़िल में है। रहबरे-राहे-मुहब्बत! रह न जाना राह में, लज्जते-सेहरा-नवर्दी दूरि-ए-मंजिल में है। अब न अगले वल्वले हैं और न अरमानों की भीड़,एक मिट जाने की हसरत अब दिले-'बिस्मिल' में है । ए शहीद-ए-मुल्को-मिल्लत मैं तेरे ऊपर निसार, अब तेरी हिम्मत का चर्चा गैर की महफ़िल में है। खींच कर लायी है सब को कत्ल होने की उम्मीद, आशिकों का आज जमघट कूच-ए-कातिल में है। सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है ज़ोर कितना बाज़ु-ए-का

देवल आशीष की कुछ कविताये उनकी पुण्यतिथि(04 जून) पर

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देवल आशीष की कुछ कविताएं प्रिये तुम्हारी सुधि को प्रिये, तुम्हारी सुधि को मैंने, यूँ भी अक्सर चूम लिया तुम पर गीत लिखा, फिर उसका, अक्षर- अक्षर चूम लिया मैं क्या जानूँ मंदिर-मस्जिद, गिरजा या गुरुद्वारा जिनपर पहली बार दिखा था, अल्हड़ रूप तुम्हारा मैंने उन पावन राहों का, पत्थर-पत्थर चूम लिया हम तुम उतनी दूर धरा से, नभ की जितनी दूरी फिर भी हमने साध मिलन की, पल में कर ली पूरी मैंने धरती को दुलराया, तुमने अम्बर चूम लिया एक बार जीवन में एकबार जीवन में प्यार कर लो प्रिये  लगती हो रात में प्रभात की किरन सी किरन से कोमल कपास की छुअन सी छुअन सी लगती हो किसी लोकगीत की लोकगीत जिसमें बसी हो गंध प्रीत की प्रीत को नमन एक बार कर लो प्रिये प्यार ठुकरा के मत भटको विकल सी विकल ह्रदय में मचा दो हलचल सी हलचल प्यार की मचा दो एक पल में एक पल में ही खिल जाओगी कमल सी प्यार के सलोने पंख बाँध लो सपन में सपन को सजने दो चंचल नयन में नयन झुका के अपना लो किसी नाम को किसी नाम को बसा लो तन-मन में मन पे किसी के अधिकार कर लो प्रिये प्यार है पवित्र पुंज, प्यार पुण्यधाम है पुण्यधाम जिसमें कि राधिका है श्

दुष्यंत कुमार की 10 बेहतरीन कविताएं और गज़ल

#1: कुंठा – दुष्यंत कुमार मेरी कुंठा रेशम के कीड़ों-सी ताने-बाने बुनती, तड़प तड़पकर बाहर आने को सिर धुनती, स्वर से शब्दों से भावों से औ’ वीणा से कहती-सुनती, गर्भवती है मेरी कुंठा –- कुँवारी कुंती! बाहर आने दूँ तो लोक-लाज मर्यादा भीतर रहने दूँ तो घुटन, सहन से ज़्यादा, मेरा यह व्यक्तित्व सिमटने पर आमादा। #2: चीथड़े में हिन्दुस्तान – दुष्यंत कुमार एक गुडिया की कई कठपुतलियों में जान है, आज शायर ये तमाशा देख कर हैरान है। ख़ास सड़कें बंद हैं तब से मरम्मत के लिए, यह हमारे वक्त की सबसे सही पहचान है। एक बूढा आदमी है मुल्क में या यों कहो, इस अँधेरी कोठारी में एक रौशनदान है। मस्लहत-आमेज़ होते हैं सियासत के कदम, तू न समझेगा सियासत, तू अभी नादान है। इस कदर पाबंदी-ए-मज़हब की सदके आपके जब से आज़ादी मिली है, मुल्क में रमजान है। कल नुमाइश में मिला वो चीथड़े पहने हुए, मैंने पूछा नाम तो बोला की हिन्दुस्तान है। मुझमें रहते हैं करोड़ों लोग चुप कैसे रहूँ, हर ग़ज़ल अब सल्तनत के नाम एक बयान है। #3: तुमको निहरता हूँ सुबह से ऋतम्बरा – दुष्यंत कुमार